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विश्वविकासित मुद्रा | जया सोडवी तुझी योगनिद्रा | तया नमो जी गणेंद्रा | श्रीगुरुराया ||१||जे तुझ्याविखीं मूढ | तयांलागीं तूं वक्रतुंड | ज्ञानियांसि तरी अखंड | उजूचि आहासी ||४||दैविकी दिठी पाहतां सानी | तर्‍ही मीलनोन्मीलनीं | उत्पत्ति प्रलय दोन्ही | लीलाचि करिसी ||५|| वामांगीचा लास्यविलास | जो हा जगद्रूप आभास | तो तांडवमिसें कळास | दाविसी तूं ||८|| फेडितां बंधनाचा ठावो | तूं जगद्‌बंधू ऐसा भावो | धरूं वोळगे उवावो | तुझाचि आंगीं ||१०||मौन गा तुझें राशिनांव | आतां स्तोत्रीं कें बांधों हांव | दिसती तेतुली माव | भजों काईं ||१५||[ श्रद्धा ] नुसधियाचि श्रद्धा | झोंबों पाहसी परमपदा | तरि तैसें हें प्रबुद्धा | सोहोपें नोहे ||५०||तैं प्राणिये तंव स्वभावें | अनादिमायाप्रभावें | त्रिगुणाचेचि आघवे | वळिले आहाती ||५६||तेथही दोन गुण खांचती | मग एक धरी उन्नती | तैं तैसियाचि होती वृत्ती | जीवांचिया ||५७|| वृत्तिऐसें मन धरिती | मनाऐसी क्रिया करिती | केलियाऐसीं वरिती | मरोनि देहें ||५८||तरि जाणिजे झाड फुलें | कां मानस जाणिजे बोलें | भोगें जाणिजे केलें | पूर्वजन्मींचें ||७४|| परि श्रुतिस्मृतींचे अर्थ | जे आपण होऊन मूर्त | अनुष्ठानें जगा देत | वडील जे हे ||८६||तयांचीं आचरतीं पाउलें | पाऊनि सात्त्विकी श्रद्धा चाले | तो तेंचि फळ ठेविलें | ऐसें लाहे ||८७||पैं एक दीप लावी सायासें | आणिक तेथें लाऊं बैसे | तरि तो काय प्रकाशें | वंचिजे गा ||८८||म्हणौनि आपलियापरी | शास्त्र अनुष्ठिती कुसरी | जाणे तयांतें श्रद्धाळु जो वरी | तो मूर्खही तरे ||९२||येर्‍हवीं तरी पाहीं | स्वभाववृद्धीच्या ठायीं | आहारावांचूनि नाहीं | बळी हेतु ||११२|| तेविं जैसा घेपे आहार | धातु तैसाचि होय आकार | आणि धातुऐसा अंतर | भाव पोखे ||११६||[ सुख- ] आणि सुखाचें घेणें देणें | निकें उवाया ये येणें | [ प्रीति- ] हें असो वाढे साजणें | आनंदेंसीं ||१३६||ऐसा न पुरोनि तोंडा | जिभा केला वेडा | अन्नमिषें अग्नि भडभडां | पोटीं भरी ||१४८|| [ हितं च यत् ] तैसा अविवेकही फिटे | आपुलें अनादित्व भेटे | आइकतां रुचि न विटे | पीयूषीं जैसी ||२२०||जरी कोणी करी पुसणें | तरी होआवें ऐसें बोलणें | [ स्वाध्यायेति ] ना तरी आवर्तणें | निगम कां नाम ||२२१||ऋग्वेदादि तीन्ही | प्रतिष्ठीजती वाग्भुवनीं | केली जैसी वदनीं | ब्रह्मशाळा ||२२२||ना तरी एकाधें नांव | तेंचि शैव कां वैष्णव | वाचे वसे तें वाग्भव | तप जाणावें ||२२३||[ मनःप्रसादः ] तरि सरोवर तरंगीं | सांडिलें आकाश मेघीं | कां चंदनाचे उरगीं | उद्यान जैसें ||२२५||मग न चलते कळंकेंवीण | शशिबिंब जैसें नित्य परिपूर्ण | तैसें चोखीं स्थिरपण | मनाचें जें ||२३०||[ आत्मविनिग्रहः ] तें स्वलाभ लाभलें लाभलेपणें | मन मनपणाही धरूं नेणे | शिवतलें जैसें लवणें | आपलें निज ||२३३||[ भावसंशुद्धिः ] तेथ कें उठिती ते भाव | जिहीं इंद्रियमार्गीं धांव | घेऊनि ठाकावे गांव | विषयांचे ते ||२३४||म्हणौनि तिये मानसीं | भावशुद्धीचि असे आपैसी | रोमशुचि जैसी | तळहाताची ||२३५||[ चलं ] पहुरणें जें दुहिलें | तैं तें गुरूं न दुभेचि व्यालें | कां उभें शेत चारिलें | पिकावया नुरे ||२४८||तैसें फोकारितां तप | कीजे जें साक्षेप | तें फळीं तंव सोप | निःशेष जाय ||२४९|| [ दातव्यमिति ] तरी स्वधर्माआंतौतें | जें जें मिळेल आपणयातें | तें तें दीजे बहुतें | सन्मानयोगें ||२६६||जालया सुबीजप्रसंग | पडे क्षेत्रवाफेचा पांग | तैसाचि दानाचा हा लाग | देखतसें ||२६७|| अनर्घ्य रत्न हाता चडे | तैं भांगाराची वोढी पडे | दोनीं जालीं तरी न जोडे | लेतें आंग ||२६८||परि सण सुहृद संपत्ती | हे तिन्ही येकीं मिळती | जैं भाग्य धरी उन्नती | आपुल्याविषीं ||२६९||तैसें निफजवावया दान | जैं सत्त्व सुये संवाहन | तैं देश काळ भोजन | द्रव्यही मिळे ||२७०||[ देशे ] तरि आधीं तंव प्रयत्नेंसीं | होआवें कुरुक्षेत्र कां काशी | ना तरि तुके जो इंहींसीं | तो देशही हो ||२७१||[ काले च ] तेथ रविचंद्रराहुमेळ | होतां पाहे पुण्यकाळ | कां तयासारिखा निर्मळ | आनही जाला ||२७२||तैशा काळीं तिये देशीं | [ पात्रे च ] होआवी पात्रसंपत्ती ऐसी | मूर्ति आहे धरिली जैसी | शुचित्वेंचि कां ||२७३||आचाराचें मूळपीठ | वेदांची उतारपेंठ | तैसें द्विजरत्न चोखट | पावोनियां ||२७४||[ दीयते ] मग तयाचे ठायीं वित्ता | निवर्तवावी स्वसत्ता | परि प्रियापुढें कांता | रिगे जैसेनि ||२७५||कां जयाचें ठेविलें तया | देऊनि होय जे उतराइया | ना ना हडपें विडा राया | दिधला जैसा ||२७६||तैसेनि निष्कामें जीवें | भूम्यादिक अर्पावें | किंबहुना हांवे | नेदावें उठों ||२७७|| [ अनुपकारिणे ] आणि दान जया द्यावें | तयातें ऐसेया पाहावें | जया घेतलें नुमचवे | कायसेनिही ||२७८||साद घातलिया आकाशा | नेदी प्रतिशब्द जैसा | कां पाहिला आरसा | येरीकडे ||२७९||ना तरी उदकाचिये भूमिके | आफळिलेनि कंदुकें | उधळौनि कवतिकें | न येइजे हाता ||२८०||ना ना वसो घातला चारु | माथां तुरंबिला बुरु | न करी प्रत्युपकारु | जियापरी ||२८१||तैसें दिधलें दातयाचें | जो कोणेही आंगें नुमचे | अर्पिलया साम्य तयाचें | कीजे पैं गा ||२८२|| [ तद्दानं सात्त्विकं स्मृतं ] ऐसिया जें सामग्रिया | दान निफजे वीरराया | तें सात्त्विक दानवर्यां | सर्वांही जाण ||२८३||[ चूर्णिका ] आणि तोचि देश काळ | घडे तैसाचि पात्रमेळ | दानभागही निर्मळ | न्यायगत ||२८४||पैं कळांतर गांठीं बांधिजे | मग पुढिलाचें काज कीजे | पूजा घेऊनि रस दीजे | पीडितांसी ||२८७||विपायें घुणाक्षर पडे | टाळिये काउळा सांपडे | तैसें तामसां पर्व जोडे | पुण्यदेशीं ||३०१||तेथ देखोनि तो आथिला | योग्य मागोंही आला | तोही दर्पा चढला | भांबावे जरी ||३०२|| तें एक आनचि आहे | तयाचा सावावो जैं लाहे | तैं मोक्षाचाही होये | गांवीं सरतें ||३२१||पैं भांगार जर्‍हीं पंधरें | तर्‍ही राजावळीचीं अक्षरें | लाहे तैंचि सरे | जियापरी ||३२२||स्वच्छें शीतळें सुगंधें | जळें होतीं सुखप्रदें | परि पवित्रत्व संबंधें | तीर्थाचेनि ||३२३||नयी हो कां भलतैसी थोरी | परि गंगा जैं अंगिकारी | तैंचि तिये सागरीं | प्रवेश गा ||३२४||तैसें सात्त्विक कर्मा किरीटी | येतां मोक्षाचिये भेटी | न पडे आडकाठी | तें वेगळें आहे ||३२५|| हा बोल आयकतखेवीं | अर्जुना आधि न माये जीवीं | म्हणे देवें कृपा करावी | सांगावें तें ||३२६|| तेथ कृपाळुचक्रवर्ती | म्हणे आइक तयाची व्यक्ती | जेणें सात्त्विक तें मुक्ति- | रत्न देखे ||३२७||[ ब्रह्मणः ] तरि अनादि परब्रह्म | जें जगदादि विश्रामधाम | तयाचें एक नाम | त्रिधा पैं असे ||३२८||तें कीर अनाम अजाती | परि अविद्यावर्गाचिये राती- | माजि वोळखावया श्रुती | खूण केली ||३२९|| [ निर्देशः ] उपजलिया बाळकासी | नांव नाहीं तयापासीं | ठेविलेनि नांवेंसीं | ओ देत उठी ||३३०||कष्टले संसारशिणें | जे देवों येती गार्‍हाणें | तयां ओ दे नांवें जेणें | तो संकेत हा ||३३१|| ब्रह्माचा अबोला फिटावा | अद्वैतत्वें तो भेटावा | ऐसा मंत्र देखिला कणवा | वेदें बापें ||३३२||मग दाविलेनि जेणें एकें | ब्रह्म आळविलें कवतिकें | मागां असत् ठाके | पुढां उभें ||३३३||परि निगमाचळशिखरीं | उपनिषदार्थनगरीं | आहाति जे ब्रह्माच्या येकाहारीं | तयांसीच कळे ||३३४||[ ॐ तत्सदिति ] तरि सर्व मंत्रांचा राजा | तो प्रणव आदिवर्ण बुझा | आणि तत्कार दुजा | तिजा सत्कार ||३४२||एवं ओंतत्सदाकार | ब्रह्मनाम हें त्रिप्रकार | हें फुल तुरंबी सुंदर | उपनिषदातें ||३४३||येणेंसीं गा होऊनि एक | जैं कर्म चाले सात्त्विक | तें कैवल्यातें पाइक | घरींचें करी ||३४४||तैसें वेळे कृत्य पावे | तेथिंचा मंत्रही आठवे | परि व्यर्थ तें आघवें | विनियोगेंवीण ||३५२||म्हणौनि वर्णत्रयात्मक | जें हें परब्रह्मनाम एक | विनियोग तूं आइक | याचा आतां ||३५३||[ ब्रह्मवादिनां ] तरि या नामींचीं अक्षरें तिन्ही | कर्मा आदि मध्य निदानीं | प्रयोजावीं पैं स्थानीं | इंहीं तिहीं ||३५४||हेचि एकी हातवटी | घेऊनि हन किरीटी | आले ब्रह्मविद भेटी | ब्रह्माचिये ||३५५|| ब्रह्मेंसीं होआवया एकी | ते न वंचती यज्ञादिकीं | जे चावळले वोळखीं | शास्त्रांचिया ||३५६|| [ तस्मादोमित्युदाहृत्य ] तो आदि तंव ओंकार | ध्यानें करिती गोचर | पाठीं आणिती उच्चार | वाचेही तो ||३५७||तेणें ध्यानें प्रकटें | प्रणवोच्चारें स्पष्टें | लागती मग वाटे | क्रियांचिये ||३५८||आंधारीं अभंग दिवा | आडवीं समर्थ बोळावा | तैसा प्रणव जाणावा | कर्मारंभीं ||३५९|| स्थळीं नावा जिया दाटिजे | जळीं तियाचि जेवीं तरिजे | तेविं बंधकीं कर्मीं सुटिजे | नामें येणें ||३६६||पाहें पां ॐ तत्सत् ऐसें | हें बोलणें तेथ नेतसे | जेथूनि कां हें प्रकाशे | दृश्यजात ||४०१||तें तंव निर्विशिष्ट | परब्रह्म चोखट | तयाचें हें आंतुवट | व्यंजक नाम ||४०२|| परि आश्रय आकाशा | आकाशचि कां जैसा | या नामा अनामिया आश्रय तैसा | अभेद असे ||४०३||उदयिला आकाशीं | रवीचि रवीतें प्रकाशी | हे नामव्यक्ती तैसी | ब्रह्मचि करी ||४०४|| म्हणौनि त्र्यक्षर हें नाम | नव्हे जाण केवळ ब्रह्म | [ चूर्णिका ] याहीलागीं कर्म | जें जें कीजे ||४०५||घाणां गाळिले गुंडे | तेल ना पेंडी जोडे | तैसें दरिद्र तेवढें | ठेलेंचि आंगीं ||४१९||