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जयजय देव विशुद्ध | अविद्योद्यानद्विरद | शमदममदनमदभेद | दयार्णव ||७|| जयजय देव श्रीगुरो | अकल्पनाकल्पतरो | स्वसंविद्द्रुमबीजप्ररो- | हणावनी ||१०|| तरी तूं जी एकरसाचें लिंग | केवीं करूं गुणागुणीं विभाग | मोतीं फोडोनि सांधितां चांग | कीं तैसेंचि भलें ||२०|| माजि आत्मज्ञानाचे एकवट | दळवाडें झाडूनि चोखट | घडिलें पार्थवैकुंठ- | संवादकुसरी ||३७||एक ते अवधानाचा पुरा | विडापाउड भीतरां | घेऊनि रिघती गाभारां | अर्थज्ञानाच्या ||४६||एवं जन्यजनकभावें | अध्याय अध्यायातें प्रसवे | आतां ऐका बरवें | पुसिलें जें ||७५|| निपटूनि कर्म सांडिजे | तें सांडणें संन्यास म्हणिजे | फळमात्र कां त्यजिजे | तो त्याग गा ||९२||जैसा निंब जिभे कडवट | हिरडा पहिलें तुरट | तैसा कर्मा ऐल सेवट | खणुवाळा होय ||१८६|| [ कार्यमिति ] तरि स्वाधिकाराचेनि नांवें | जें वांटिया आलें स्वभावें | तें आचरे विधिगौरवें | शृंगारोनि ||२००||[ सङ्गं त्यक्त्त्वा फलं चैव ] परि हें मी करित असें | ऐसा आठव त्यजी मानसें | तैसेंचि पाणी दे आशे | फळाचिये ||२०१||पैं अवज्ञा आणि कामना | मातेच्या ठायीं अर्जुना | केलिया दोनी पतना | कारण होती ||२०२|| तरि दोनी यें त्यजावीं | मग माताचि ते भजावी | वांचूनि मुखालागीं वाळावी | गायचि सगळी ||२०३||आवडतियेही फळीं | असारें साली आंठोळी | त्यासाठीं अवगळी | फळातें कोण्ही ||२०४||तैसा कर्तृत्वाचा मद | आणि कर्मफळाचा आस्वाद | या दोहींचें नांव बंध | कर्माचा कीं ||२०५|| तरि या दोहींच्या विखीं | जैसा बाप नातळे लेंकीं | तैसा हों न शके दुःखी | विहिता क्रिया ||२०६|| [ अयं भावः ] आतां जाळूनि बीज जैसें | झाडा कीजे निर्वंशें | फळ त्यागूनि कर्म तैसें | त्यजिलें जेणें ||२०८||तया लागतखेंवो परिसीं | धातूचि गंधिकाळिमा जैसी | जाती रजतमें तैसीं | तुटलीं दोन्ही ||२०९||मग सत्त्वें चोखाळें | उघडती आत्मबोधाचे डोळे | तेथ मृगांबु सांजवेळे | होय जैसें ||२१०||तैसा बुद्ध्यादिकांपुढां | असतचि विश्वाभास येवढा | तो न देखे कवणीकडां | आकाश जैसें ||२११||आपणचि विऊनि दुहिता | कीं न मम म्हणे पिता | तो सुटे कीं प्रतिग्रहीता | जांवाई शिरके ||२३४|| देव मनुष्य स्थावर | यया नांव जगडंबर | आणि हे तंव तीन्ही प्रकार | कर्मफळाचे ||२३९|| तेंचि एक गा अनिष्ट | एक तें केवळ इष्ट | आणि एक इष्टानिष्ट | त्रिविध ऐसें ||२४०|| [ अनिष्टं ] परि विषयमता बुद्धी | आंगीं सूनि अवधी | प्रवर्तती जे निषिद्धीं | कुव्यापारीं ||२४१||तेथ कृमि कीट लोष्ट | हें देह लाहती निकृष्ट | तया नाम तें अनिष्ट | कर्मफळ ||२४२||[ इष्टं ] कां स्वधर्मा मान देतां | स्वाधिकार पुढां सूतां | सुकृत कीजे पुसतां | आम्नायातें ||२४३||तैं इंद्रादिक देवांचीं | देहें लाहिजती सव्यसाची | तया कर्मफळा इष्टाची | प्रसिद्धी गा ||२४४|| [ मिश्रं च ] आणि गोड आंबट मिळे | तेथ रसांतर फरसाळें | उठी दोहीं वेगळें | दोहीं जिणतें ||२४५||रेचकचि योगवशें | होय स्तंभावयादोषें | सत्यासत्य-समरसें | सत्यासत्यचि जिणिजे ||२४६|| म्हणोनि समभागें शुभाशुभें | मिळोनि अनुष्ठानाचें उभें | तेणें मनुष्यत्व लाभे | तें मिश्र फळ ||२४७|| [ न तु संन्यासिनां क्वचित् ] येर्हवीं जातिपुष्पांचें विकसणें | त्याचि नाम जैसें सुकणें | तैसें कर्ममिषें न करणें | केलें जिंहीं ||२५७||चांदिणियाचा पडिभर | होतां सोमकांताचा डोंगर | विघरोनि सरोवर | हों पाहे जैसा ||२८६|| आतां येचि वेगळालीं | पांचही विवंचूं गा भलीं | तुकोनि घेतलीं | मोतियें जैसीं ||३१४|| [ अधिष्ठानं ] तैसीं यथालक्षणें | आइकें पांच कारणें | तरि देह हें मी म्हणें | पहिलें एथ ||३१५||ययातें अधिष्ठान ऐसें | म्हणिजे तें याचि दोषें | जे स्वभोग्येंसीं वसे | भोक्ता येथ ||३१६|| इंद्रियांच्या दाहें हातीं | जाचोनि दिवोराती | सुखदुःखें प्रकृती | जोडीजती जियें ||३१७||तियें भोगावया पुरुखा | आन ठावोचि नाहीं देखा | म्हणौनि अधिष्ठानभाखा | बोलिजे देह ||३१८|| हें चोविसांही तत्त्वांचें | कुटुंबघरवस्तीचें | तुटे बंधमोक्षांचें | गुंथाडें एथ ||३१९||किंबहुना अवस्थात्रया | हें अधिष्ठान धनंजया | म्हणोनि देहा यया | हेंचि नाम ||३२०|| प्रकृती करी कर्में | तो म्यां केली म्हणे भ्रमें | येथ कर्ता येणें नामें | बोलिजे जीव ||३२६|| कां घराआंतुल एक | दीपाचा अवलोक | गवाक्षभेदें अनेक | आवडे जेवीं ||३२८|| [ विविधा च पृथक्चेष्टा ] आणि पूर्वपश्चिमवाहणी | निघालिया वोघाचिया मिळणी | होय नदी नद पाणी | एकचि जेवीं ||३३२||तैसी क्रियाशक्ति पवनीं | असे जे अनपायिनी | ते पडिली नाना स्थानीं | नाना होय ||३३३||जैं वाचे करी येणें | तैं तेचि होय बोलणें | हाता आली तरी घेणें | देणें होय ||३३४||अगा चरणाच्या ठायीं | तरि गती तेचि पाहीं | अधोद्वारीं दोहीं | क्षरणें तेचि ||३३५|| कंदौनि हृदयवरी | प्रणवाची उजरी | करितां तेचि शरीरीं | प्राण म्हणिजे ||३३६|| मग उर्ध्वींचिया रिगानिगा | पुढती तेचि शक्ति पैं गा | उदान ऐसिया लिंगा | पात्र जाहाली ||३३७||अधोरंध्राचेनि वाहें | अपान हें नाम लाहे | व्यापकपणें होये | व्यान तेचि ||३३८|| आरोगिलेनि रसें | शरीर भरी सरिसें | आणि न सांडितां असे | सर्वसंधी ||३३९||ऐसिया इया राहटीं | मग तेचि क्रिया पाठीं | समान ऐसी किरीटी | बोलिजे गा ||३४०|| आणि जांभई शिंक ढेंकर | ऐसैसा होतसे व्यापार | नाग कूर्म कृकर | इत्यादि होय ||३४१|| एवं वायूची हे चेष्टा | एकीचि परि सुभटा | वर्तनास्तव पालटा | येतसे जे ||३४२|| ते भेदली वृत्तिपंथें | वायुशक्ती गा एथें | कर्मकारण चौथें | ऐसें जाण ||३४३||वाचे बरवें कवित्व | कवित्वीं बरवें रसिकत्व | रसिकत्वीं परतत्त्व | स्पर्श जैसा ||३४७||[ शरीरवाङ्मनोभिरिति प्रत्येकं पदं व्याचष्टे तत्र मनसा ] तरि अवसांत आली माधवी | ते हेतु होय नवपल्लवीं | पल्लव पुष्पपुंज दावी | पुष्प फळांतें ||३५४||कां वार्षिये आणिजे मेघ | मेघें वृष्टिप्रसंग | वृष्टीस्तव भोग | सस्यसुखाचा ||३५५|| ना तरी प्राची अरुणातें विये | अरुणें सूर्योदय होये | सूर्यें सगळा पाहे | दिवस जैसा ||३५६|| तैसें मन हेतु पांडवा | होय कर्मसंकल्पभावा | तो संकल्प लावी दिवा | वाचेचा गा ||३५७|| [ शरीरेण ] तेथ शरीरादिक दळवाडें | शरीरादिकां हेतूचि घडे | लोहकाम लोखंडें | निर्वाळिजे जैसें ||३५९||कां तांथुवाचा ताणा | तांथु घालितां वैरणा | तो तंतूचि विचक्षणा | होय पट ||३६०||तैसें मन वाचा देहाचें | कर्म मनादि हेतुचि रचे | रत्नीं घडे रत्नाचें | दळवाडें जेवीं ||३६१||जैसा पर्जन्योदकाचा लोट | विपायें धरी साळींचा पाट | तो जिरे परि अचाट | उपयोग आथी ||३६८|| तैसें हेतुकारणमेळें | उठी कर्म जें आंधळें | तें शास्त्राचे लाहे डोळे | तैं न्याय्य म्हणिपे ||३७०||[ विपरीतं वा ] दूध वाढतां ठावो न पवे | तंव उतोनि जाय स्वभावें | तोही वेंच परि नव्हे | वेंचिलें तें ||३७१||अगा बावनां वर्णांपरता | कोण मंत्र आहे पंडुसुता | कां बावनही नुच्चारितां | जीव आथी ||३७३||परि मंत्राची कडसणी | जंव नेणिजे कोदंडपाणी | तंव उच्चारफळ वाणी | न पवे जेवीं ||३७४||थिल्लराचेनि जालेपणें | सूर्यासि आणी होणें | त्याच्या नाशीं नाशणें | कंपे कंप ||३८७||[ अयं भावः ] मग तया मानणयासाठीं | देहबंदीशाळे किरीटी | कर्माच्या वज्रगांठी | कळासे तो ||३९२||तैसें हारपलें आपणपें पावे | तैं संतांतें पाहतां गिंवसावें | म्हणोनि वानावे ऐकावे | तेचि सदा ||४००|| [ यस्य नाहङ्कृतो भावः ] तरि अविद्येचिया निदा | विश्वस्वप्नाचा हा धांदा | भोगित होता प्रबुद्धा | अनादि जो ||४०३||तो महावाक्याचेनि नांवें | गुरुकृपेचेनि थांवें | माथां हात ठेवणें नव्हे | थापटिला जैसा ||४०४|| तैसा विश्वस्वप्नेंसीं माया | नीद सांडूनि धनंजया | सहजेंचि चेइला अद्वया- | नंदपणें जो ||४०५||वारा जरी वाजोनि वोसरे | तरी तो डोल रुखीं उरे | कां सेंदें द्रुति राहे कापुरें | वेंचलेनी ||४२३|| जैसें खालारां धांवे पाणी | भ्रमर पुष्पाचिये घाणीं | ना ना सुटला सांजवणीं | वत्सचि पां ||४८१|| [ प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने ] तें सात्विक ठाऊवें होये | तो गुणभेद सांगों पाहें | जो सांख्यशास्त्रीं आहे | उवाइला ||५१९||[ सर्वभूतेषु येनैकं ] तरी अर्जुना गा तें फुडें | सात्विक ज्ञान चोखडें | जयाच्या उदयीं ज्ञेय बुडे | ज्ञातेनिसीं ||५२९||जैसा सूर्य न देखे आंधारें | सरिता नेणिजती सागरें | कां कवळिलिया न धरे | आत्मछाया ||५३०|| तयापरी जया ज्ञाना | शिवादि तृणावसाना | इया भूतव्यक्ति भिन्ना | नाडळती ||५३१|| [ भावमव्ययमीक्षते ] जैसें हातें चित्र पाहातां | होय पाणियें मीठ धुतां | कां चेवोनि स्वप्ना येतां | जैसें होय ||५३२||तैसें ज्ञानें जेणें | करितां ज्ञातव्यातें पाहाणें | जाणता ना जाणणें | जाणावें उरे ||५३३|| [ अविभक्तं विभक्तेषु ] पैं सोनें आटूनि लेणीं | न काढिती आपुलिया आयणी | कां तरंग न घेपती पाणी | गाळूनि जैसें ||५३४||तैसी जया ज्ञानाचिया हाता | नलगेचि दृश्यकथा | [ तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ] तें ज्ञान जाण सर्वथा | सात्विक गा ||५३५||[ अयं भावः ] आरिसा पाहों जातां कोडें | जैसें पाहातेंचि कां रिगे पुढें | तैसें ज्ञेय लोटोनि पडे | ज्ञाताचि जें ||५३६||अळंकारपणें झांकलें | बाळका सोनें कां वायां गेलें | तैसें नामीं रूपीं दुरावलें | अद्वैत जया ||५४२||अवतरली गाडग्यां घडां | पृथ्वी अनोळख जाली मूढां | वह्नि जाला कानडा | दीपत्वासाठीं ||५४३||जेतुलें आड पडे दिठी | तेतुलें घेचि विषयासाठीं | मग तें स्त्रीद्रव्य वाटी | शिश्नोदरां ||५५८|| [ उदाहृतं ] तेंही ज्ञान इया भाषा | बोलिजे तो भाव ऐसा | जात्यंधाचा कां जैसा | डोळा वाड ||५७९||[ प्रवृत्तिं च ] म्हणौनि अधिकारें मानिलें | जें विधीचेनि वोघें आलें | तें येकचि येथ भलें | नित्य कर्म ||६९९||[ कार्येति ] तेंचि आत्मप्राप्ति फळ | दिठी सूनि केवळ | कीजे जैसें कां जळ | सेविजे ताहने ||७००||येतुलेनि तें कर्म | [ अभये ] सांडी जन्मभय विषम | करूनि दे सुगम | मोक्षसिद्धि ||७०१||ऐसें करी तो भला | संसारभयें सांडिला | कारणीयत्वें आला | मुमुक्षुभागा ||७०२||[ मोक्षं च ] तेथ जे बुद्धि ऐसा | बळिया बांधे भरंवसा | मोक्ष ठेविला ऐसा | जोडेल येथ ||७०३||[ अयं भावः ] म्हणौनि निवृत्तीचि मांडली | सूनि प्रवृत्ति तळीं | इये कर्मीं बुडकुळी | द्यावी कीं ना ||७०४||तृषार्ता उदकें जिणें | कां पुरीं पडलिया पव्हणें | अंधकूपीं गति किरणें | सूर्याचेनि ||७०५|| ना ना पथ्येंसीं औषध लाहे | तरी रोगें दाटलाही जिये | कां मीना जिव्हाळा होये | जळाचा जरी ||७०६||तरि तयाच्या जीविता | नाहीं जेविं अन्यथा | तैसें कर्मीं इये वर्ततां | जोडेचि मोक्ष ||७०७|| हें करणीयाचिया कडे | जें ज्ञान आथी चोखडें | [ निवृत्तिं च ] आणि अकरणीय हें फुडें | ऐसें जाण ||७०८||[ अकार्ये ] जीं तियें काम्यादिकें | संसारभयदायकें | अकृत्यपणाचें आंबुखें | पडिलें जयां ||७०९||तिये कर्मीं अकार्यीं | [ भये ] जन्ममरणसमयीं | प्रवृत्ति पळवी पायीं | मागिलीचि ||७१०||पैं आगीमाजि न रिघवे | अथावीं न घलवे | धगधगीत नागवे | शूळ जेवीं ||७११||कां काळिया नाग धुंधुवात | देखोनि न घालवे हात | न वचवे खोंपेआंत | व्याघ्राचिये ||७१२|| तैसें कर्म अकरणीय | देखोनि महाभय | उपजे निःसंदेह | बुद्धि जिये ||७१३|| [ बन्धं ] वाढिलें रांधूनि विषें | तेथ जाणिजे मृत्यु न चुके | तेविं निषिद्धीं कां देखे | बंधातें जो ||७१४||[ या वेत्ति ] मग बंधभयभरितीं | तियें निषिद्धीं प्राप्तीं | विनियोग जाणे निवृत्ती | कर्माचिये ||७१५||ऐसेनि कार्याकार्यविवेकी | जे प्रवृत्तिनिवृत्तिमापकी | खरा कुडा पारखी | जियापरी ||७१६|| [ बुध्दिः सा पार्थ सात्त्विकी ] तैसी कृत्याकृत्यशुद्धी | बुझे जे निरवधी | सात्त्विक म्हणिपे बुद्धी | तेचि तूं जाण ||७१७||[ बुध्दिः सा पार्थ राजसी ] ते गा बुद्धि चोखविखीं | जाण येथ राजसी | अक्षत टाकिली जैसी | मांदियेवरी ||७२३||[ अधर्ममिति ] आणि राजा जिया वाटा जाये | ते चोरांसि आडव होये | कां राक्षसां दिवो पाहें | राति होउनि ||७२४||ना ना निधानचि निदैवा | होये कोळसयाचा उडवा | पैं असतें आपणपें जीवा | नाहीं जालें ||७२५|| तैसें धर्मजात तितकें | जिये बुद्धीसी पातकें | साच तें लटिकें | ऐसेंचि बुझे ||७२६|| [ सर्वेति ] ते आघवेचि अर्थ | करूनि घाली अनर्थ | गुण ते ते व्यवस्थित | दोषचि मानी ||७२७||किंबहुना श्रुतिजातें | अधिष्ठूनि केलें सरतें | तेतुलेंहि उपरतें | जाणे जे बुद्धी ||७२८|| कोणातेंही न पुसतां | तामसी जाणावी पंडुसुता | रात्री काय धर्मार्था | साच करावी ||७२९|| [ इन्द्रियक्रियाः ] इंद्रियां विषयांचिया गांठी | अपैसां सुटती किरीटी | मन मायेच्या पोटीं | रिगती दाही ||७३८||[ प्राण- ] अधोर्ध्व गुढें काढी | प्राण नवांची पेंडी | बांधोनि घाली उडी | मध्यमेमाजी ||७३९||संकल्पविकल्पाचें लुगडें | सांडूनि मन उघडें | बुद्धि मागिलेकडे | उगीचि बैसे ||७४०||[ योगेन ] मग आघवींचि सडीं | ध्यानाच्या आंतुल्या मढीं | कोंडिजती निरवडी | योगाचिये ||७४२||पैं ग्रहांमाजि इंगळ | तयातें म्हणिजे मंगळ | तैसा तमीं धसाळ | गुणशब्द हा ||७५१||तरि सुख तें गा किरीटी | दाविजेल तुज दिठी | जें आत्मयाचिये भेटी | जीवासि होय ||७७३||[ अभ्यासाद्रमते यत्र ] परि मात्रेचेनि मापें | दिव्यौषध जैसें घेपे | कां कथिलाचें कीजे रुपें | रसभावनीं ||७७४||ना ना लवणाचें जळ | होआवया दोनी चार वेळ | देऊनि सांडिजती ढाळ | तोयाचे जेवीं ||७७५||तेविं जालेनि सुखलेशें | जीव भाविलिया अभ्यासें | [ दुःखान्तं च निगच्छति ] जीवपणाचें नासे | दुःख जेथें ||७७६||[ यत्तदग्रे विषमिव ] आतां चंदनाचें बुड | सर्पीं जैसें दुवाड | कां निधानाचें तोंड | विवसिया जेविं ||७७८||जें सारसांही विघडतां | होय वोहाहूनि वत्स काढितां | ना भणंग दवडितां | भाणयावरुनी ||७८५|| पैं मायेपुढौनि बाळक | काळें नेतां एकुलतें एक | होय कां उदक | तुटतां मीना ||७८६|| तैसें विषयांचें घर | इंद्रियां सांडितां थोर | युगांत होय तें वीर | विराग साहाती ||७८७|| ऐसा जया सुखाचा आरंभ | दावी काठिण्याचा क्षोभ | [ परिणामेऽमृतोपमं ] मग क्षीराब्धीं लाभ | अमृताचा जैसा ||७८८||पहिलया वैराग्यगरळा | धैर्यशंभु वोडवी गळा | तरि ज्ञानामृतें सोहळा | पाहे जेथें ||७८९|| [ आत्मबुद्धिप्रसादजं ] तें वैराग्यादिक तैसें | पिकलिया आत्मप्रकाशें | मग वैराग्येंसींही नाशे | अविद्याजात ||७९१||तेव्हां सागरीं गंगा जैसी | आत्मीं मीनल्या बुद्धि तैसी | अद्वयानंदाची आपैसी | खाणी उघडे ||७९२|| ऐसें स्वानुभवविश्रामें | वैराग्यमूळ जें परिणमे | [ तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तं ] तें सात्त्विक येणें नामें | बोलिजे सुख ||७९३||[ सत्त्वं प्रकृतिजैरिति ] म्हणौनि प्रकृतीच्या आलोकीं | न बंधिजे इंहीं सत्त्वादिकीं | [ न तदस्तीति ] तैसी स्वर्गीं ना मृत्युलोकीं | आथी वस्तु ||८१३||कैंचा लोंवेवीण कांबळा | मातियेवीण मोदळा | का जळेंवीण कल्लोळा | होणें आहे ||८१४|| तैसें न होनि गुणाचें | सृष्टीच्या रचना रचे | ऐसें नाहींच गा साचें | प्राणिजात ||८१५|| यालागीं हें सकळ | तिहीं गुणांचेंचि केवळ | घडलें आहे निखिळ | ऐसें जाण ||८१६|| गुणीं देवां त्रयी लाविली | गुणीं लोकीं त्रिपुटी [ तृतीयाध्यायोक्तं कर्मयोगं दर्शयितुं प्रकरणान्तरमारभते ब्राह्मणेत्यष्टभिः ] पाडिली | [ चूर्णिका ] चतुर्वर्णां घातलीं | सिनानीं उळिगें ||८१७||[ शमः ] तरि सर्वेंद्रियांचिया वृत्ती | घेऊनि आपुल्या हातीं | बुद्धि आत्मया मिळे येकांतीं | प्रिया जैसी ||८३३||ऐसा बुद्धीचा उपरम | तया नाम म्हणिपे शम | तो गुण गा उपक्रम | जया कर्माचा ||८३४|| [ दमः ] आणि बाह्येंद्रियांचें धेंडें | पिटूनि विधीचेनि दंडें | नेदिजे अधर्माकडे | कंहींचि जावों ||८३५||तो पैं गा शमा विरजा | दम गुण जेथ दुजा | आणि स्वधर्माचिया वोजा | जिणें जें कां ||८३६|| [ तपः ] तेवींचि सटवीचिये राती | न विसंबिजे जेविं वाती | तैसा ईश्वरनिर्णय चित्तीं | वाहणें सदा ||८३७||मन भावशुद्धी भरलें | आंग क्रिया अळंकारिलें | ऐसें सबाह्य जियालें | साजिरें जें कां ||८३९|| तरि सत्त्वशुद्धीचिये वेळे | शास्त्रें कां ध्यानबळें | ईश्वरतत्त्वींचि मिळे | निष्टंकबुद्धी ||८४७||पैं राजमुद्रा आथिलियां | प्रजा भजे भलतयां | तेविं शास्त्रें स्वीकारिलिया | मार्गमात्रातें ||८४९||हा क्षत्रियाचेया आचारीं | पांचवा गुणेंद्र अवधारीं | चहूं पुरुषार्थीं शिरीं | भक्ति जैसी ||८६७|| [ अभिरतः ] तया स्वभावविहिता कर्मा | शास्त्राचेनि मुखें वीरोत्तमा | प्रवर्तावयालागीं प्रमा | अढळ कीजे ||८८८||पैं आपुलेंच रत्न थितें | घेपे पारखियाचेनि हातें | तैसें स्वकर्म आपैतें | शास्त्रें करावें ||८८९||म्हणौनि ज्ञातिवशें साचार | सहज असे जो अधिकार | तो आपुलालिया शास्त्रें गोचर | आपण कीजे ||८९१|| [ स्वकर्मनिरतः ] तैसें स्वभावें भागा आलें | वरी शास्त्रें खरें केलें | तें विहित जो आपुलें | आचरे गा ||८९३||परि आळस सांडुनी | फळकाम दवडुनी | आंगें जीवें मांडुनी | तेथेंचि भरु ||८९४|| [ यथा ] अर्जुना जो यापरी | तें विहित कर्म स्वयें करी | [ सिद्धिं ] तो मोक्षाच्या ऐलतीरीं | [ विन्दन्ति तच्छृणु ] पैठा होय ||८९६||किंबहुना आत्मज्ञान | जेणें हाता ये निधान | तें वैराग्य दिव्यांजन | जीवें ले तो ||९०४|| अगा उजू वाटा चालावें | तर्ही पायचि शिणवावे | ना आडरानें धांवावें | तर्ही तेंची ||९३७|| मग जिंतिलिया हें भोये | पुरुष सर्वत्र जैसा होये | कां जालाही जें लाहे | तें आतां सांगों ||९५५|| [ पञ्चमाध्यायोक्तं संन्यासयोगमाह त्रिभिः ][ असक्तबुद्धिः सर्वत्र ] तरि देहादिक हें संसारें | सर्वही मांडलेंसे जें गुंफिरें | तेथ नातुडे तो वागुरे | वारा जैसा ||९५६||पैं परिपाकाचिये वेळे | फळ देठें ना देठ फळें | न धरे तैसें स्नेह खुळें | सर्वत्र होय ||९५७||पुत्र वित्त कलत्र | हे जालियाही स्वतंत्र | माझें न म्हणे पात्र | विषाचें जैसें ||९५८|| [ जितात्मा ] हें असो विषयजातीं | बुद्धि पोळली ऐसी माघौती | पाउलें घेऊनि एकांतीं | हृदयाच्या रिघे ||९५९||ऐसया अंतःकरण | बाह्य येतां तयाची आण | न मोडी समर्था भेण | दासी जैसी ||९६०|| तैसें ऐक्याचिये मुठी | माजिवडें चित्त किरीटी | करूनि वेधीं नेहटी | आत्मयाच्या ||९६१||[ विगतस्पृहः ] तेव्हा दृष्टादृष्ट स्पृहे | निमणें जालेंचि आहे | आगीं दडपलिया धुयें | राहिजे जैसें ||९६२||म्हणौनि नियमिलिया मानसीं | स्पृहा नासोनि जाय आपैसी | किंबहुना तो ऐसी | भूमिका पावे ||९६३|| [ नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां ] पैं अन्यथाबोध आघवा | मावळोनि तया पांडवा | बोधमात्रींचि जिवा | ठाव होय ||९६४||धरवणी वेंचें सरे | तैसें भोगें प्राचीन पुरे | नवें तंव नुपकरे | कांहींचि करूं ||९६५|| ऐशी कर्में साम्य दशा | होय तेथ वीरेशा | मग श्रीगुरु आपैसा | भेटेचि गा ||९६६|| चेइलियावरि पाहीं | स्वप्नींचिया तिये डोहीं | आपणयातें काई | काढूं जाइजे ||९७४||तैं मी नेणें आतां जाणेन | हें सरलें तया दुःस्वप्न | जाला ज्ञातृज्ञेयाविहीन | चिदाकार ||९७५||तैसें जया कोण्हासि दैवें | गुरुवाक्य श्रवणाचिसवें | द्वैत गिळोनि विसंवे | आपणया वृत्ती ||९८८|| कानां वचनाचिये भेटी- | सरिसाचि पैं किरीटी | वस्तु होऊनि उठी | कवणि एक जो ||९९१|| सुक्षेत्रीं आणि वोलटें | बीजहि पेरिलें गोमटें | तरि आलोट फळ भेटे | परि वेळें कीं गा ||९९९||जोडला मार्ग प्रांजळ | मिनला सुसंगाचाही मेळ | तरि पाविजे वांचूनि वेळ | लागेचि कीं ||१०००|| तैसा वैराग्यलाभ जाला | वरि सद्गुरूही भेटला | जीवीं अंकुर फुटला | विवेकाचा ||१००१||तैसा वैराग्याचा वोलावा | विवेकाचा तो दिवा | आंबुथितां आत्मठेवा | काढीचि तो ||१००८|| [ बुद्ध्या विशुद्धया ] तरी गुरू दाविलिया वाटा | येऊनि विवेकतीर्थतटा | धुऊनियां मळवटा | बुद्धीचा तेणें ||१०११||[ विविक्तसेवी ] गजबजा सांडिलिया | वसवी वनस्थळिया | अंगाचिया मांदिया | एकलेया ||१०२२||शमदमादिकीं खेळे | न बोलणेंचि चावळे | गुरुवाक्याचेनि मेळें | नेणे वेळ ||१०२३|| [ लघ्वाशी ] आणि आंगा बळ यावें | नातरी क्षुधा जावें | कां जिभेचे पुरावे | मनोरथ ||१०२४||भोजन करितांविखीं | यया तिहींतें न लेखी | आहारीं मिती संतोषीं | माप न सूये ||१०२५||अनशनाचेनि पावकें | हारपती प्राण पोखे | इतुकियाचि भाग मोटकें | अशन करी ||१०२६||[ यतवाक्कायमानसः ] आणि परपुरुषें कामिली | कुळवधू आंग न घाली | निद्रालस्या न मोकली | अशन तैसें ||१०२७||दंडवताचेनि प्रसंगें | भुयीं हन अंग लागे | वांचूनि येर नेघे | राभस्य तेथ ||१०२८|| देहनिर्वाहापुरतें | राहाटवी हातांपायांतें | किंबहुना आपैतें | सबाह्य केलें ||१०२९|| आणि मनाचा उंबरा | वृत्तीसी देखों नेदी वीरा | तेथ कें वाग्व्यापारा | अवकाश असे ||१०३०|| ऐसेनि देह वाचा मानस | हे जिणोनि बाह्यप्रदेश | [ ध्यान- ] आकळिलें आकाश | ध्यानाचें तेणें ||१०३१||गुरुवाक्यें उठविला | बोधीं निश्चय आपला | न्याहाळी हातीं घेतला | आरिसां जैसा ||१०३२||पैं ध्याता आपणपेंचि परी | ध्यानरूप वृत्तिमाझारीं | ध्येयत्वें घे हे अवधारीं | ध्यानरूढी गा ||१०३३|| तेथ ध्येय ध्यान ध्याता | ययां तिहीं एकरूपता | होय तंव पंडुसुता | कीजे तें गा ||१०३४|| म्हणौनि तो मुमुक्षु | आत्मज्ञानीं जाला दक्षु | [ योगपरो नित्यं ] परि पुढां सूनि पक्षु | योगाभ्यासाचा ||१०३५||अपानरंध्रद्वया- | माझारीं धनंजया | पार्ष्णीं पिडूनियां | कांवरुमूळ ||१०३६|| आकुंचूनि अध | देऊनि तिन्ही बंध | करूनि एकवद | वायुभेदा ||१०३७|| कुंडलिनी जागऊनि | मध्यमा विकाशूनि | आधारादि भेदूनि | अग्निवरी ||१०३८||सहस्त्रदळांचा मेघ | पीयूषें वर्षोनि चांग | तो मूळवरी वोघ | आणूनियां ||१०३९||नाचतया पुण्यगिरी | चिद्भैरवाच्या खापरीं | मनपवनाची खीच पुरी | वाढूनियां ||१०४०|| जालिया योगाचा गाढा | मेळावा सूनि हा पुढां | ध्यान मागिलीकडां | स्वयंभ केलें ||१०४१|| [ वैराग्यमिति पञ्चदशाध्यायोक्तमसङ्गशस्त्रमाह ] आणि ध्यान योग दोनी | इयें आत्मतत्त्वज्ञानीं | पैठीं होआवया निर्विघ्नीं | आधींचि तेणें ||१०४२||वीतरागतेसारिखा | जोडूनि ठेविला सखा | तो आघवियाचि भूमिकां- | सवें चाले ||१०४३|| पहावें दिसे तंववरी | दिठीतें न संडी दीप जरी | तरी कें अवसरी | देखावया ||१०४४|| तैसें मोक्षीं प्रवर्तलिया | वृत्ती ब्रह्मीं जाय लया | तंव वैराग्य आथी तया | भंग कैंचा ||१०४५||म्हणौनि सवैराग्य | ज्ञानाभ्यास तो सभाग्य | करूनि जाला योग्य | आत्मलाभा ||१०४६|| ऐसी वैराग्याची आंगीं | बाणूनियां वज्रांगी | राजयोगतुरंगीं | आरूढला ||१०४७||वरी आड पडिलें दिठी | सानें थोर निवटी | तें बळी विवेकमुष्टीं | ध्यानाचे खांडें ||१०४८||ऐसेनि संसाररणाआंत | आंधारीं सूर्य तैसा असे जात | मोक्ष विजयश्रिये वरैत | होआवयालागीं ||१०४९|| [ षोडशाध्यायोक्तमज्ञानवर्गं दर्शयति ]ना ना भरतिया लगबगा | शरत्काळीं सांडिजे गंगा | कां गीत राहतां उपांगा | वोहट पडे ||१०९३|| हेंही असो चेइलया | हें स्वप्न नाहीं जालया | मग आपणचि आपणयां | उरिजे जैसें ||१११०||येर्हवीं तिजी ना चौथी | हे पहिली ना सरती | पैं माझिये सहजस्थिती | भक्ति नाम ||१११३|| स्वप्नाचें दिसणें न दिसणें | जैसें आपलेनि असलेपणें | विश्वाचें आहे नाहीं जेणें | प्रकाशें तैसें ||१११६||ते हे कल्पादि भक्ति मियां | श्रीभागवतमिषें ब्रह्मया | उत्तम म्हणोनि धनंजया | उपदेशिली ||११३२|| ज्ञानी इयेतें स्वसंविति | शैव म्हणती शक्ती | आम्ही परम भक्ति | आपली म्हणों ||११३३||चेइलया स्वप्न नाशे | आपलें ऐक्यचि दिसे | तें दुजेनवीण जैसें | भोगिजे कां ||११४१||तैसी क्रिया कीर न साहे | तर्हीं अद्वैतीं भक्ति आहे | हें अनुभवाचिजोगें नव्हे | बोलाऐसें ||११५१|| पैं चेइलेयानंतरें | आपुलें एकपण उरे | तेंही तयावरी स्फुरे | तयासींचि जैसें ||१२०१|| कीं कर्मयोग-प्रासादाचा | कळस जो हा मोक्षाचा | तया वरील अवकाशाचा | उवावो जाला तो ||१२२०||ना ना संसार आडवी | कर्मयोग वाट बरवी | जोडली ते मदैक्यगांवीं | पैठी जालीसे ||१२२१||हें असो कर्मयोगवोघे | तेणें भक्तिचिद्गंगें | मी स्वानंदोदधि वेगें | ठाकिला कीं गा ||१२२२||अगा वसुधेच्या पोटीं | निधान सिद्ध किरीटी | वह्नि सिद्ध काष्ठीं | वोहां दूध ||१२२७||वारा आभाळचि फेडी | वांचून सूर्यातें न घडी | कां हात बांबुळी धाडी | तोय न करी ||१२३१|| हां गा रोग कायी रोगिया | आवडे दरिद्र दरिद्रिया | परि भोगविजे बळिया | अदृष्टें जेणें ||१२९७|| तें अदृष्ट अनारिसें | न करील ईश्वरवशें | तो ईश्वरही असे | हृदयीं तुझ्या ||१२९८|| [ दशमैकादशयोरुक्त्तौ विभूतिविश्वरूपदर्शनयोगौ दर्शयति ईश्वर इति द्वाभ्याम् ] [ सर्वभूतानां ] [ ‘भोक्तारं यज्ञ’ इति पञ्चमाध्यायांत्यश्लोकस्यापि भावार्थोऽत्र द्रष्टव्यः’ ] सर्व भूतांच्या अंतरीं | हृदय महाअंबरीं | चिद्वृत्तीच्या सहस्त्रकरीं | उदयला असे जो ||१२९९||अवस्थात्रय तिन्ही लोक | प्रकाशूनि अशेष | अन्यथादृष्टि पांथिक | चेवविले ||१३००|| वेद्योदकाच्या सरोवरीं | फांकतां विषय कल्हारीं | इंद्रियषट्पदा चारी | जीवभ्रमरातें ||१३०१|| [ ईश्वरः ] असो रूपक हें तो ईश्वर | सकळ भूतांचा अहंकार | पांघरोनि निरंतर | उल्हासत असे ||१३०२||[ मायया ] स्वमायेचें आडवस्त्र | लावूनि एकला खेळवी सूत्र | बाहेरी नटी छायाचित्र | चौर्यासीं लक्ष ||१३०३||तया ब्रह्मादिकीटांता | अशेषांही भूतजातां | देहाकार योग्यता | पाहोनि दावी ||१३०४|| [ यन्त्रारूढानि ] तेथ जें देह जयापुढें | अनुरूपपणें मांडे | तें भूत तया आरूढे | हें मी म्हणौनि ||१३०५||सूत सूतें गुंतलें | तृण तृणेंचि बांधलें | कां आत्मबिंबा घेतलें | बाळकें जळीं ||१३०६|| तयापरी देहाकारें | आपणपेंचि दुसरें | देखोनि जीव आविष्करे | आत्मबुद्धि ||१३०७||ऐसेनि शरीराकारीं | यंत्रीं भूतें अवधारीं | [ भ्रामयन् ] वाहूनि हालवी दोरी | प्राचीनाची ||१३०८||तेथ जया जें कर्मसूत्र | मांडूनि ठेविलें स्वतंत्र | तें तिये गती पात्र | होंचि लागे ||१३०९|| किंबहुना धनुर्धरा | भूतांतें स्वर्गसंसारा- | माजि भोवंडी तृणें वारा | आकाशीं जैसीं ||१३१०|| भ्रामकाचेनि संगें | जैसें लोहो वेढा रिगे | तैसीं ईश्वरसत्तायोगें | चेष्टती भूतें ||१३११|| जैसे चेष्टा आपुलालिया | समुद्रादिक धनंजया | चेष्टती चंद्राचिया | सन्निधी येकीं ||१३१२||तैसीं बीजप्रकृतिवशें | अनेकें भूतें येकें ईशें | चेष्टवीजती तो असे | [ हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ] तुझ्या हृदयीं ||१३१४||[ अयं भावः ] अर्जुनपण न घेतां | मी ऐसें जें पंडुसुता | उठतसे तें तत्वता | तयाचें रूप ||१३१५||यालागीं तो प्रकृतीतें | प्रवर्तवील हें निरुतें | आणि तें जुंझवील तूतें | न जुंझसी जर्ही ||१३१६||म्हणौनि ईश्वर गोसावी | तेणें प्रकृति हे नेमावी | तिया सुखें राबवावीं | इंद्रियें आपुलीं ||१३१७||तूं करणें नकरणें दोन्ही | लाऊनि प्रकृतीच्या मानीं | प्रकृतीही कां अधीनी | हृदयस्था जया ||१३१८|| [ स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतं ] संभूति जेणें संभवे | विश्रांति जेथें विसंबे | अनुभूतिही अनुभवे | अनुभवा जया ||१३२१||आत्मज्ञानें चोखडीं | संत जे माझीं रूपडीं | तेथ दृष्टि पडो आवडी | कामिनी जैसी ||१३५६|| [ सर्वधर्मान्परित्यज्य ] आशा जैसी दुःखातें | व्याली निंदा दुरितें | हें असो जैसें दैन्यातें | दुर्भगत्व ||१३९०||तैसा मी एकवांचून कांहीं | मग भिन्नाभिन्न आन नाहीं | सोऽहंबोधें तयाच्या ठायीं | अनन्य होय ||१३९७|| जैसें घटाचेनि नाशें | गगनीं गगन प्रवेशे | मज शरण येणें तैसें | ऐक्य करी ||१३९९|| सुवर्णमणि सोनया | ये कल्लोळ जैसा पाणिया | तैसा मज धनंजया | शरण ये तूं ||१४००|| मग ताकौनियां काढिलें | लोणी माघौतें ताकीं घातलें | परि न घेपेचि कांहीं केलें | तेणें जेवीं ||१४०६|| [ ‘स्वानुभवसुखोक्तयः’ ] मग सांवळा सकंकण | बाहु पसरोनि दक्षिण | आलिंगिला स्वशरण | भक्तराज तो ||१४१८||न पवतां जयातें | काखे सूनि बुद्धीतें | बोलणें मागौतें | वोसरलें ||१४१९|| ऐसें जें कांहीं येक | बोला बुद्धीसिही अटक | तें द्यावया मिष | खेंवाचें केलें ||१४२०|| हृदया हृदय येक जालें | ये हृदयींचें ते हृदयीं घातलें | द्वैत न मोडितां केलें | आपणाऐसें अर्जुना ||१४२१||दीपें दीप लाविला | तैसा परिष्वंग तो जाला | द्वैत न मोडितां केला | आपणपें पार्थ ||१४२२|| तेव्हां सुखाचा मग तया | पूर आला जो धनंजया | तेथ वाड तर्ही बुडोनियां | ठेला देव ||१४२३|| तैसें तया दोघांचें मिळणें | दोघां नावरे जाणावें कवणें | किंबहुना श्रीनारायणें | विश्व कोंदलें ||१४२५|| तरी जयाच्या निःश्वासीं | जन्म झालें वेदराशी | तो सत्यप्रतिज्ञ पैजेसीं | बोलिला स्वमुखें ||१४२८||जें देह वाचा मानसें | विहित निपजे जें जैसें | तें एक ईश्वरोद्देशें | कीजे म्हणीतलें ||१४४२||[ ‘ज्ञानकाण्डं’ ] आणि तेणेंचि ईशप्रसादें | श्रीगुरुसंप्रदायलब्धें | साच ज्ञान उद्बोधे | कोंवळें जें ||१४४६||तें अद्वेष्टादिप्रभृतिकीं | अथवा अमानित्वादिकीं | वाढविजे म्हणौनि लेखीं | बारावा गणूं ||१४४७|| तो बारावा अध्याय आदि | आणि पंधरावा अवधि | ज्ञानफळपाकसिद्धि | निरूपणासी ||१४४८|| तरि निधान जोडावया | भाग्य घडे गा धनंजया | परि जोडिलें भोगावया | विपायें होय ||१४७५|| पैं क्षीरसागरायेवढें | अविरजी दुधाचें भांडें | सुरां असुरां केवढें | मथितां जालें ||१४७६|| तें साहसही फळा आलें | जें अमृतही डोळां देखिलें | परि वरिचिल चुकले | जतनेनें ||१४७७|| तेथ अमरत्वा वोगरिलें | तें मरणाचिलागीं जालें | भोगों नेणतां जोडलें | ऐसें आहे ||१४७८|| नहुष स्वर्गाधिपति जाला | परी राहाटीं भांबावला | तो भुजंगत्व पावला | नेणसी कायी ||१४७९|| म्हणौनि बहुत पुण्य तुवां | केलें तेणें धनंजया | आजि शास्त्रराजा इया | जालासि विषय ||१४८०|| तरि ययाचि शास्त्राचेनी | संप्रदायें पांघुरौनी | शास्त्रार्थ हा निकेनीं | अनुष्ठीं हो ||१४८१||येर्हवीं अमृतमथना- | सारिखें होईल अर्जुना | जरि रिघसी अनुष्ठाना | संप्रदायेंवीण ||१४८२|| गाय धड जोडे गोमटी | ते तैंचि पय दे किरीटी | जैं जाणिजे हातवटी | सांजवणीची ||१४८३|| तैसा श्रीगुरु प्रसन्न होये | शिष्य विद्याही कीर लाहे | परि ते फळे संप्रदायें | उपासिलिया ||१४८४|| म्हणौनि शास्त्रीं जो इये | उचित संप्रदाय आहे | तो ऐक आतां बहुवें | आदरेंसीं ||१४८५|| [ इदं ते ] तरि तुवां हें जें पार्था | गीताशास्त्र लाधलें आस्था | [ नातपस्काय ] तें तपोहीना सर्वथा | [ न ] सांगावें ना हो ||. १४८६||[ नाभक्ताय ] अथवा तापसही जाला | परि गुरूभक्तीं जो ढिला | तो वेदीं अंत्यज वाळिला | तैसा वाळीं ||१४८७||ना तरि पुरोडाशु जैसा | न घापे वृद्ध तरी वायसा | गीता नेदी तैसी तापसा | गुरुभक्तिहीना ||१४८८|| [ न चाशुश्रूषवे वाच्यं ] कां तपही जोडे देहीं | भजे गुरुदेवांच्या ठाईं | परि आकर्णनीं नाहीं | चाड जरी ||१४८९||तरि मागील दोहीं आंगीं | उत्तम होय कीर जगीं | परि या श्रवणालागीं | योग्य नोहे ||१४९०|| मुक्ताफळ भलतैसें | हो परि मुख नसे | तंव गुण प्रवेशे | तेथ कायी ||१४९१|| सागर गंभीर होये| हें कोण ना म्हणत आहे | परि वृष्टि वायां जाये | जाली तेथ ||१४९२|| धालिया दिव्यान्न सुवावें | मग जें वायां धाडावें | तें आर्तीं कां न करावें | उदारपण ||१४९३|| [ कदाचन ] म्हणौनि योग्य भलतैसे | होत परी चाड नसे | तरि झणें वानिवसें | देसी हें तयां ||१४९४||रूपाचा सुजाण डोळा | वोडवूं ये कायि परिमळा | जेथ जें माने तें फळा | तेथचि ते गा ||१४९५|| म्हणौनि तपी भक्ति | पाहावे ते सुभद्रापती | परि शास्त्रश्रवणीं अनासक्ति | वाळावेचि ते ||१४९६|| [ न च मां योऽभ्यसूयति ] ना तरी तपभक्ति | होऊनि श्रवणीं आर्ति | आथी ऐसी ही आयती | देखसी जरी ||१४९७||तरी गीताशास्त्रनिर्मिता | जो मी सकळलोकशास्ता | तया मातें सामान्यता | बोलेल जो ||१४९८|| माझ्या सज्जनेंसिं मातें | पैशुन्याचेनि आव्हाते | येक आहाती तयांतें | योग्य न म्हण ||१४९९|| तयांची येर आघवी | सामग्री ऐसी जाणावी | दीपेंवीण ठाणदिवी | रात्रीची जैसी ||१५००|| अंग गोरें आणि तरुणें | वरि लेयिलें आहे लेणें | परि येकलेनि प्राणें | सांडिलें जेवीं ||१५०१|| सोनयाचें सुंदर | निर्वाळिलें होय घर | परि सर्पांगना द्वार | रुंधलें आहे ||१५०२|| निपजे दिव्यान्न चोखट | परि माजी काळकूट | असो मैत्री कपट- | गर्भिणी जैसी ||१५०३|| तैसी तपभक्तिमेधा | तयाची जाण प्रबुद्धा | जो माझयांची कां निंदा | माझीचि करी ||१५०४|| याकारणें धनंजया | तो भक्त मेधावी तपिया | तरि नको बापा इया | शास्त्रा आतळों देवों ||१५०५|| काय बहु बोलों निंदका | योग्य स्रष्टयाहीसारिखा | गीता हे कवतिका- | लागींही नेदीं ||१५०६|| [ चूर्णिका ] म्हणौनि तपाचा धनुर्धरा | तळीं दाटोनि गाडोरां | वरि गुरुभक्तीचा पुरा | प्रासाद जो जाला ||१५०७||आणि श्रवणेच्छेचा पुढां | दारवंटा सदा उघडा | वरी कलश चोखडा | अनिंदारत्नांचा ||१५०८||तैसा ब्रह्म मी हें विसरे | तेथ जगचि ब्रह्मत्वें भरे | हेंही सांडी तरी विरे | ब्रह्मपणही ||१५५१|| ऐसा मोडत मांडत ब्रह्में | तो दुःखें देहाचिये सीमे | मी अर्जुन येणें नामें | उभा ठेला ||१५५२|| मग कांपतां करतळीं | दडपूनि रोमावळी | पुलकु स्वेदजळीं | जिरऊनियां ||१५५३|| प्राणक्षोभे डोलतया | आंगा आंगचि टेंकया- | सूनि स्तंभ चाळया | भुलौनियां ||१५५४||नेत्रयुगुळाचेनि वोतें | आनंदामृताचें भरितें | वोसंडत तें मागुतें | काढूनियां ||१५५५||वाचेचें वितुळणें | सांवरूनि प्राणें | अक्रमाचें श्वसणें | ठेऊनि ठायीं ||१५५७|| [ एतद्गुह्यमहं ] ऐकतांचि ते गोठी | ब्रह्मत्वाची पडिली मिठी | मीतूंपणेंसीं दिठी | विरोनि गेली ||१६१०||[ अयं भावः ] तेथ कीं माझे श्रोत्र | पाटाचें जाले जी पात्र | काय वानूं स्वतंत्र | सामर्थ्य श्रीगुरूंचें ||१६१३||[ यत्र पार्थो धनुर्धरः ] विजयी नामें अर्जुन विख्यात | विजयस्वरूप श्रीकृष्णनाथ | श्रियेसीं विजय निश्चित | तेथेंचि असे ||१६४२||तयाचे बिसाट शब्द | सुखें म्हणों येती वेद | सदेह सच्चिदानंद | कां नोहावे ते ||१६४६||कीं आत्मराजाचिये सभे | गीते वोडवले हे खांबे | मज श्लोक प्रतिभे | ऐसे येत ||१६६६||म्हणौनि मनें कायें वाचा | जो सेवक होईल इयेचा | तो स्वानंदसाम्राज्याचा | चक्रवर्ती करी ||१६६८|| येथें अर्थें तेंचि पाठें | जोडे येवढेनि धटें | वाच्यवाचक येकवटें | साधितें शास्त्र ||१६८४|| शास्त्र वाच्यें अर्थें फळे | मग आपण मावळे | तैसें नव्हे हें सगळें | परब्रह्मचि ||१६८६||[ ग्रन्थकर्तृत्वाभिमानपरिहारः ]आणि तोचि हा मी आतां | श्रीव्यासाचीं पदें पाहतां | आणिला श्रवणपथा | मर्हाठिया ||१७०९||आणि बाप पुढां जाये | ते घेत पाउलाची सोये | बाळ ये तरि न लाहे | पावों कायी ||१७२२|| तैसा व्यासाचा मागोवा घेत | भाष्यकारांतें वाट पुसत | अयोग्यही मी न पवत | कें जाईन ||१७२३|| म्हणोनि माझे नित्य नवे | श्वासोच्छ्वासही प्रबंध होआवे | श्रीगुरुकृपा काय नोहे | ज्ञानदेव म्हणे ||१७३५||तैसें अध्यात्मशास्त्रीं यिये | अंतरंगचि अधिकारियें | परि लोक वाक्चातुर्यें | होईल सुखिया ||१७५०||ऐसें श्रीनिवृत्तिनाथाचें | गौरव आहे जी साचें | ग्रंथ नोहे हें कृपेचें | वैभव तिये ||१७५१|| [ गुरुपरम्पराकथनम् ] क्षीरसिंधुपरिसरीं | शक्तीच्या कर्णकुहरीं | नेणों कैं श्रीत्रिपुरारीं | सांगीतलें जें ||१७५२||तें क्षीरकल्लोळाआंतु | मकरोदरीं गुप्तु | होता तयाचा हातु | पैठे जालें ||१७५३||तो मत्स्येंद्र सप्तशृंगीं | भग्नावयवा चौरंगीं | भेटला कीं तो सर्वांगीं | संपूर्ण जाला ||१७५४||मग समाधि अव्यत्यया | भोगावी वासना या | ते मुद्रा श्रीगोरक्षराया | दिधली मीनीं ||१७५५||तेणें योगाब्जिनीसरोवर | विषयविध्वंसैकवीर | तिये पदीं कां सर्वेश्वर | अभिषेकिले ||१७५६|| मग तिहीं तें शांभव | अद्वयानंदवैभव | संपादिलें सप्रभव | श्रीगैणीनाथा ||१७५७|| [ नीतिः ] तेणें कळिकळित भूतां | आला देखोनि निरुता | ते आज्ञा श्रीनिवृत्तिनाथा | दिधली ऐसी ||१७५८||ना आदि गुरु शंकरा | लागोनि शिष्यपरंपरा | बोधाचा हा संसरा | जाला जो आमुतें ||१७५९||तो हा तूं घेऊनि आघवा | कळीं गिळितयां जीवां | सर्व प्रकारीं धांवा | करीं पां वेगीं ||१७६०|| आधींच तंव तो कृपाळु | वरि गुरुआज्ञेचा बोलु | जाला जैसा वर्षाकाळु | खवळणें मेघां ||१७६१|| मग आर्ताचेनि वोरसें | गीतार्थग्रंथनमिसें | वर्षला शांतरसें | तो हा ग्रंथ ||१७६२|| तेथ पुढां मीं बापिया | मांडला आर्ती आपुलिया | कीं यासाठीं येवढिया | आणिलों यशा ||१७६३||एवं गुरुक्रमें लाधलें | समाधिधन जें आपुलें | तें ग्रंथें बोधौनि दिधलें | गोसावीं मज ||१७६४|| [ गुरुस्तवनम् ] वांचूनि पढे ना वाची | ना सेवाही जाणे स्वामीची | ऐसिया मज ग्रंथाची | योग्यता कें असे ||१७६५||परि साचचि गुरुनाथें | निमित्त करूनि मातें | प्रबंधव्याजें जगातें | रक्षिलें जाणा ||१७६६|| सिवतलियाही परिसें | लोहत्वाचिये अवदसे | न मुकिजे आयसें | तैं कवणा बोल ||१७७२|| म्हणौनि भाग्ययोगें बहुवें पां हे | तुम्हां संतांचे मी पाये | पातलों आतां कें लाहें | उणें जगीं ||१७७४||किंबहुना तुमचें केलें | धर्मकीर्तन हें सिद्धी नेलें | येथ माझें जी उरलें | पाईकपण ||१७९३|| [ वरप्रार्थना ] आतां विश्वात्मकें देवें | येणें वाग्यज्ञें तोषावें | तोषोनि मज द्यावें | पसायदान हें ||१७९४||जे खळांची व्यंकटी सांडो | तया सत्कर्मीं रति वाढो | भूतां परस्परें पडो | मैत्र जीवांचें ||१७९५||दुरितांचें तिमिर जावो | विश्व स्वधर्मसूर्यें पाहो | जो जें वांच्छील तो तें लाहो | प्राणिजात ||१७९६||वर्षत सकळमंगळीं | ईश्वरनिष्ठांची मांदियाळी | अनवरत भूतळीं | भेटो तयां भूतां ||१७९७||चलां कल्पतरूंचे आरव | चेतना चिंतामणीचे गांव | बोलते जे अर्णव | पीयूषाचे ||१७९८||चंद्रमे जे अलांच्छन | मार्तंड जे तापहीन | ते सर्वांही सदा सज्जन | सोयरे होतु ||१७९९|| किंबहुना सर्वसुखीं | पूर्ण होऊनि तिहीं लोकीं | भजिजो आदिपुरुषीं | अखंडित ||१८००|| आणि ग्रंथोपजीविये | विशेषीं लोकीं इये | दृष्टादृष्टविजयें | होआवें जी ||१८०१|| येथ म्हणे श्रीविश्वेशरावो | हा होईल दानपसावो | येणें वरें ज्ञानदेवो | सुखिया जाला ||१८०२|| तेथ महेशान्वयसंभूतें | श्रीनिवृत्तिनाथसुतें | केलें ज्ञानदेवें गीते | देशीकारलेणें ||१८०६|| पुढती पुढती पुढती | इया ग्रंथपुण्यसंपत्ती | सर्वसुखीं सर्वभूतीं | संपूर्ण होइजे ||१८१०||